इतना भर भी नहीं, शायद हिंदी फिल्मों के सामाजिक-राजनीतिक पक्ष कुछ ज़्यादा रोमानी या अयथार्थवादी रह गए होते- कम से कम उनमें उतनी परतें नहीं होतीं जितनी दिलीप कुमार की मौजूदगी की वजह से संभव हुईं.
ध्यान से देखें तो आज़ाद भारत के शुरुआती वर्षों का हिंदी सिनेमा तीन बड़े नायकों के साथ उभरता है. इनमें एक राज कपूर हैं- वह भोला-भोला गंवई नायक, जो नेहरू के समाजवादी सपनों का राजू बन कर तरह-तरह से उस देश की व्याख्या करता है जहां गंगा बहती है और जहां मेहमां जो हमारा होता है, वो जान से प्यारा होता है, दूसरे एक शहरी रोमानी हीरो देवानंद हैं जो ग्रेगरी पैक से प्रभावित दिखते हैं, लेकिन जिनमें अपनी तरह की चुस्ती-फुर्ती और अंग्रेजियत-रोमानियत है. इन दोनों को थोड़ा-थोड़ा मिलाकर और उनमें अपना रंग फेंट कर बनते हैं दिलीप कुमार. वे कभी-कभी राज कपूर की तरह भोले हो जाते हैं और कभी-कभी देवानंद की तरह छैले, लेकिन अक्सर गांव और शहर के बीच आते-जाते, संघर्षों की तपिश के बीच बनते नायक की तरह उभरते हैं.
हालांकि यह कहते-कहते जोड़ना पड़ता है कि दिलीप कुमार के अभिनय में इतनी रंगतें और परते हैं कि उन्हें किसी एक खांचे में बांधना संभव नहीं होता. बेशक, ऐसी रंगतें राज कपूर और देवानंद में भी हैं और अक्सर वे भी अपनी सीमाओं के पार जाते हैं, लेकिन दिलीप कुमार सच्चे अर्थों में ऐसे नायक की तरह उभरते हैं जिसमें एक भारतीय संपूर्णता है- गांव को बचाए रखने का जज़्बा भी और शहर में बने रहने का साहस भी. 'राम और श्याम' जैसी उनकी फिल्म इन दोनों ध्रुवों का स्पर्श करती है और यह अनायास नहीं है कि आने वाले पीढ़ियों के नायक यह फिल्म बार-बार दुहराते हैं- सच्चा-झूठा में राजेश खन्ना और असली-नकली में मिथुन चक्रवर्ती यह दोहरी भूमिका करते हैं और बताने की ज़रूरत नहीं कि दोनों दिलीप कुमार से कई क़दम पीछे छूट जाते हैं.
दिलीप कुमार को अक्सर ट्रैजेडी किंग बताया जाता रहा. यहूदी में वे अंधे होते हैं, अंदाज़ में मारे जाते हैं, देवदास में मर जाते हैं. कायदे से देवदास वह फिल्म है जो दिलीप कुमार के इस त्रासद पहलू को चरम तक ले जाती है. पारो, चंद्रमुखी, मोहब्बत और शराब के बीच बिखरे-टूटते देवदास का यह किरदार दिलीप कुमार ने इतनी शिद्दत और खुलेपन से जिया कि शरतचंद का अन्यथा मामूली सा उपन्यास एक क्लासिक लगने लगा.
मगर दिलीप कुमार ट्रैजेडी किंग की यह छवि बार-बार तोड़ते हैं. 'नया दौर', 'लीडर', 'गंगा-जमना', 'संघर्ष' 'मुगले आज़म' वे फिल्में हैं जो दिलीप कुमार के अभिनय के कई पहलू सामने लाती हैं. 'मुगले आज़म' में अकबर जैसे शहंशाह का किरदार निभा रहे पृथ्वीराज कपूर की लगातार जलती हुई आंखों और कड़कती हुई आवाज़ का मुक़ाबला दिलीप कुमार अपनी कौंधती हुई निगाह और लरजती हुई आवाज़ से करते हैं और मोहब्बत और बादशाहत के बीच पिसते-लड़ते और न हारते सलीम का ऐसा यादगार किरदार खड़ा करते हैं जिसे भुलाना मुश्किल है. मधुबाला जैसी खूबसूरत अनारकली और पृथ्वीराज जैसे बड़े शहंशाह के बीच शहज़ादा अगर बचा रहा तो इसलिए कि के आसिफ़ ने दिलीप कुमार को उसे गढ़ने और जीने की ज़िम्मेदारी दी थी.