बिहार विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत के उस बयान को भी जिम्मेवार ठहराता हैं जिस बयान में उन्होंने कहा था कि आरक्षण व्यवस्था की पुनर समीक्षा की आवश्यकता दिखायी पड़ रही है। ऊपर से देखने में इस बयान में कहीं कोई त्रुटि नहीं दिखायी पड़ती पर विचार की सम्पूर्णता में कहीं आज के संवैधानिक अनुसूचित जन जाति / पिछड़ी जाति या पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर पुनर विवेचन की झलक मात्र छिपी दिखायी पड़ती है । जनतन्त्र को प्रशासन की सर्वोत्तम व्यवस्था माननें वाले विचारकों को भी भारत जैसे विपुल विभाजन वाले देश में जनतन्त्र की उपलब्धियों पर निश्चित विश्वास की नीवें हिला दीं हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान नें प्लेग ,चेचक ,पोलियो जैसी संक्रामक व्याधियों पर भले ही निश्चित सफलता प्राप्त कर ली हो पर जनतांत्रिक राजनीति में भारत नें समस्याओं को न जानें कितनें तोड़ -मरोड़ देकर एक अत्यन्त संक्रामक रूप दे दिया है । जाट आन्दोलन ,गूजर आन्दोलन ,पटेल आन्दोलन सभी आरक्षण को मूलभूत आधार बताकर प्रशासन को चुनौती देते दिखायी पड़ रहे हैं । उधर दलित ,अति दलित ,और महादलित के भेद -भाव को लेकर कुतर्कों की गोला बारी जारी है । जनजातियों के बीसों भेद -प्रभेद क्षेत्रीय अराजकता फैलानें के साथ -साथ राष्ट्रीय संप्रभुता के लिये भी चुनौती बनते जा रहे हैं । सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लेकर अल्प -संख्यकों के आरक्षण के लिये भी कुटिल राजनीतिक कलाबाजियाँ सीखी -सिखायी जा रही हैं । इस कान फोडू कोलाहल के बीच भारत का सामान्य नागरिक बेबस मूक दर्शक बनकर बैठ गया है । शहर में बसने वाली आबादी का एक काफी बड़ा हिस्सा अपनी पहचान के लिये जाति को एक नकारात्मक गणक के रूप में ही ले रहा है । शिक्षित मध्य वर्ग समूचे भारत में अपनी पहचान के लिये रहन -सहन और आर्थिक मजबूती के नये पैमानें गढ़ चुका है । यह मध्य वर्गीय तपका अभी इतना संख्या बल प्राप्त नहेीं कर सका है कि वह राजनीति पर सम्पूर्णतः हावी हो जाय । पर इतना अवश्य है कि इस अपेक्षा कृत उदार वर्ग की राजनीतिक चेतना भारत के पारस्परिक सोच पर गहरी चोट कर रही है । इस वर्ग की सामूहिक चेतना में आरक्षण के औचित्य को और उस औचित्य को आधार देने वाले मानकों पर पुनर विचार करने की आवश्यकता जान पड़ती है। मोहन भागवत संभवतः इसी अनिश्चित मन स्थिति को शब्दों में व्यक्त करनें का प्रयास कर रहे थे चूंकि अभी हमारे सामनें इन समस्याओं का कोई समुचित समाधान नहीं दिखायी पड़ता इसलिये विचार को व्यक्त करने में भाषा का अटपटापन दिखायी पड़ता है। कि यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि आज देश का समूचा राजनीतिक नेतृत्व आरक्षण की गुत्थियों में उलझ कर रह गया है और इन गुत्थियों को सुलझाने के लिये अपनें आधे अधूरे प्रयासों से इन गुत्थियों को और अधिक उलझाता जा रहा है । अनसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण प्रदान करने के लिये एक मजबूत ऐतिहासिक आधार उपस्थित था और इसी कारण उसे संविधान में दस वर्षों के लिये एक विशेष व्यवस्था की गयी पर पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षण की जो व्यवस्था अब स्वीकृत हो गयी है उसके गिनायें जाने वाले मानक अब परिक्षा की कसौटी पर खरे नहीं उतरते । पाकिस्तान या अन्य कुछ देशों से आने वाली सामरिक चुनौतियों के जवाब में भारत के अधिकाँश नेतागण भारतीय शौर्य की शेखचिल्ली वाली गाथायें गाया करते हैं पर जहां तक राजनीतिक बहादुरी का सम्बन्ध है मुझे तो उनमें कोई भी दमदार नेता दिखायी नहीं पड़ता लगभग सात दशक का लम्बा स्वतन्त्रता का दौर अब पराधीनता वाली मानसिकता से प्रभावित होता दिखायी पड़ता है । जहां तक मेरा अनुभव है आज भारत में व्यक्ति की पहचान का सबसे मजबूत आधार जाति ,धर्म . ,क्षेत्र ,या अंचल न होकर आर्थिक स्तम्भों पर टिकी हुयी है । ऐसे में मात्र समाधान का रास्ता केवल आर्थिक समता -विषमता का पैमाना ही माना जा सकता है । अतीत के सारे सामाजिक विभाजन भी कहीं न कहीं आर्थिक दायरों के बन्धन में घिरे दिखायी पड़ते हैं । एक लम्बे काल तक आर्थिक असमर्थता का दौर समाज के किसी भी वर्ग को वंचित और दलित वर्ग की श्रेणी में खड़ा कर देता है । हमारे सविधान निर्माता देश की सच्चाई से पूर्ण रूप से अवगत थे पर वे जानते थे कि सच्चायी को हटाने का रास्ता आरक्षण न होकर मानसिक विकास की उच्चतर सुविधाओं का श्रजन करना होना चाहिये । इसीलिये प्रारम्भ में उन्होंने अनसूचित जाति और जनजातियों के लिये केवल दस वर्षीय आरक्षण का प्रावधान किया कौन जानता था कि भारत का राजनीतिक वर्ग धीरे धीरे अपनें स्वार्थ के लिए संविधान में मात्राओ के मूल भूत प्रेरणाओं को नकारता चला जायेगा अब ऐसा लगता है कि भारतीय संविधान का सबसे टिकाऊ आधार आरक्षण की निरन्तरता हो गया है और मण्डल कमीशन द्वारा सुनियोजित आरोपित आरक्षण अपनें दायरे में पिछड़े पन के नाम पर देश के सबसे सम्पन्न जाति समूहों को अपनें में समेटता चला जा रहा है । कम से कम मुझे भारत की मौजूदा राजनीति में आरक्षण को जाति मुक्त करने का कोई सार्थक ध्वजवाहक तो दिखायी नहीं पड़ रहा है । जो डर सबको खा रहा है वह डर है सत्ता से बाहर हो जाने का भय । 'माटी . की ललकार एक विजेता की हुंकार नहेीं बन सकती क्योंकि उसके साधन अत्यन्त सीमित हैं और उसका पाठक वर्ग भी अभी आर्थिक सम्पन्नता की दहलीज पर ही खड़ा हो पाया है पर हमारी दूर दृष्टि भविष्य की सच्चायी को उजागर करती है कि एक न एक दिन आरक्षण का आधार जन्म की बाध्यता से मुक्त होकर अर्थ की अल्पता या प्रचुरता से जुड़ जायेगा । शायद वह दिन एक बड़ी उथल पुथल के बाद लाया जा सकेगा और जब वह दिन आ जायेगा तब ' माटी ' की अर्थवत्ता ,सार्थकता और दूर द्रष्टिता का समुचित आकलन संम्भव हो सकेगा ।
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